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-देवेन्द्र स्वरूप
अखंड भारत का संकल्प लेने से पहले अखंड भारत की अवधारणा स्पष्ट होनी चाहिए। अगर अखंड भारत का अर्थ भौगोलिक अखंडता है तो वह आज भी अपनी जगह पर है। भूगोल तो जैसा पहले था, वैसा ही आज भी है। केवल उस पर राजनीतिक विभाजन की लकीरें खींच दी गई हैं। वे लकीरें क्यों खींची गईं? दूसरा प्रश्न यह है कि अगर भारत की परंपरागत सीमाओं की बात की जाए तो उन सीमाओं में तो अफगानिस्तान भी आता है, लेकिन अफगानिस्तान को अखंड भारत का अंग हम नहीं मानते।
अभी हमारे सामने अखंड भारत का जो चित्र है, वह एक प्रकार से ब्रिटिश भारत का चित्र है। अगर हम परंपरा के दृष्टिकोण से देखें तो भारत की सीमाओं में नेपाल भी आता है, भूटान, श्रीलंका और अफगानिस्तान भी आते हैं। भौगोलिक सीमाओं और सांस्कृतिक सीमाओं में हमेशा समन्वय बिठाने की आवश्यकता पड़ती है। फिर इसमें राजनीति भी आती है। भारत का विभाजन क्यों हुआ? वह मजहब के आधार पर हुआ। मुस्लिम बहुल क्षेत्र भारत से अलग हो गए। उनके और भारत के बीच में इस्लाम एक दीवार बनकर खड़ा हो गया। अब खंडित भारत में अधिकतम 20 प्रतिशत मुसलमान हैं और भारत की पूरी राजनीति इन 20 प्रतिशत मुसलमानों के पास गिरवी रखी है। भारत की समूची वोट राजनीति मुस्लिम वोटबैंक के चारों ओर घूम रही है। हर राजनीतिक दल मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए एक ओर हिन्दुओं को लांछित कर रहा है और दूसरी ओर मुस्लिम गठजोड़ के साथ समझौते कर रहा है। आज घुसपैठ के विरुद्ध बोलना कठिन है, कश्मीर का प्रश्न पूरा का पूरा मुस्लिम समस्या से जुड़ गया है।
कश्मीर के पुराने निवासियों, जिन्होंने कश्मीर की सभ्यता को सुरक्षित रखा था, उनका कश्मीर में कहीं स्थान नहीं है। जब भी बात होती है, हुर्रियत की बात होती है। ऐसी स्थिति में अगर पाकिस्तान और बांग्लादेश मिल जाते हैं और अगर भारत इसी राजनीतिक प्रणाली को लेकर चलता है तो इससे कैसी स्थिति बनेगी? यह एक विचारणीय प्रश्न है। अगर अखंड भारत एक सांस्कृतिक अवधारणा है तो प्रश्न उठता है कि यदि खंडित भारत में वह संस्कृति स्वयं को घिरी हुई पा रही है तो पाकिस्तान और बांग्लादेश को उनके वर्तमान चरित्र के साथ मिला लेने के बाद उस संस्कृति की स्थिति क्या होगी? यही कारण है कि अब पाकिस्तान और बांग्लादेश के बुद्धिजीवी भी अखंड भारत की भाषा बोल रहे हैं।
दूसरा प्रश्न यह है कि अखंड भारत कैसे बनेगा? क्या सैनिक विजय द्वारा बनेगा? क्या आज के युग में यह संभव है? और अगर सैनिक विजय द्वारा नहीं होगा तो क्या वार्तालाप द्वारा एकीकरण के लिए अनुकूल मन:स्थिति उन देशों में विद्यमान है? क्या पाकिस्तान और बांग्लादेश की मानसिकता में कोई परिवर्तन हुआ है? अगर अखंड भारत का स्वप्न पूरा करना है तो खंडित भारत में भारतीय संस्कृति के आधार पर एक श्रेष्ठ और शक्तिशाली सभ्यता का निर्माण् करना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक अखंड भारत की बात करना अव्यावहारिक है। राजनीतिक सीमाएं तो परिवर्तनशील होती हैं। वे स्थाई नहीं होतीं। भूगोल स्थाई होता है और जब तक उस भूगोल का सांस्कृतिक प्रवाह अवरुद्ध नहीं हो जाता, उसकी अस्मिता और पहचान बनी रहती है।
आज खंडित भारत की हिन्दू पहचान नहीं है जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश की मुस्लिम पहचान है। भारत में हिन्दू समाज अपनी प्रकृति के कारण अंदर से विभाजित है। राजनैतिक दृष्टि से भी, जातियों में भी और क्षेत्रीय दृष्टि से भी। हिन्दू समाज का यह विखंडन भारत की राजनीति में भी प्रतिबिम्बित हो रहा है। देश की लोकसभा में जो 44-45 राजनीतिक दल हैं, इनमें से दो-चार को छोड़कर सभी हिन्दू दल हैं और सभी व्यक्ति केंद्रित हैं। ऐसी स्थिति में केवल ऊंची-ऊंची बातें करना अधिक उचित नहीं है। दीनदयाल उपाध्याय और राममनोहर लोहिया ने मिलकर जो भारत-पाकिस्तान महासंघ की बात की थी, क्या उसे अखंड भारत मानेंगे? वे पाकिस्तान और भारत को अलग-अलग राजनीतिक इकाई मानकर कुछेक तालमेल की व्यवस्था सोच रहे थे। ऐसा ही प्रयास विभाजन के पहले भी हुआ था। विभाजन के पहले भी विदेश नीति और मुद्रा आदि कुछ विषयों पर स्थानीय स्वायत्तता के आधार पर एक महासंघ बनाने का प्रस्ताव रखा गया था, लेकिन वह बात मानी नहीं गई।
नौवीं शताब्दी में मनुस्मृति के एक व्याख्याकार हुए हैं, मेधा तिथि। उन्होंने अपनी व्याख्या में लिखा है कि जहां-जहां वर्ण-व्यवस्था है, वहां-वहां तक आर्यावर्त है। आर्यावर्त की पहचान वर्ण-व्यवस्था और यज्ञ है। यह व्याख्या सांस्कृतिक आधार पर की गई थी। यदि भारतीय संस्कृति आज स्वयं को इतना तेजस्वी और चैतन्य बना सकती है कि दूसरे लोगों में उसे स्वीकार करने की इच्छा पैदा हो तो सांस्कृतिक भारत का विस्तार हो सकता है। आज पश्चिम में भारत के जो साधु-संत जाते हैं, वे किसी को मतांतरित नहीं करते, लेकिन उनके अध्यात्म और प्रवचनों से प्रभावित होकर लोग उनके शिष्य बनते हैं और वे स्वयं ही भारतीय नाम, वेशभूषा आदि धारण कर लेते हैं। यह एक प्रकार से भारत के सांस्कृतिक प्रभाव का ही विस्तार है। आज ईसाई चर्च कह रहा है कि योग का प्रचार तो हिन्दू संस्कृति का प्रचार है। इसलिए हम जो स्वप्न देखते हैं, उन्हें जिस यथार्थ में पूरा करना है, उस यथार्थ को निर्मम होकर समझना आवश्यक है। अखंड भारत यदि बनेगा तो पूरे हिन्दू समाज की आंतरिक स्थिति के आधार पर बनेगा। कोई दो-चार व्यक्तियों के सोचने से नहीं बनेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अस्सी वर्षों से हिन्दू समाज को संगठित करने का प्रयास कर रहा है और उसके रहते हुए ही हिन्दू समाज विघटन की ओर बढ़ रहा है और उसका चारित्रिक पतन हो रहा है। इसकी विवेचना होनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि अखंड भारत की परंपरागत अवधारणा व्यावहारिक नहीं है। यदि अखंड भारत का स्वप्न देखना है तो जो वाल्मिकी रामायण में नवद्वीपवती भारत की व्याख्या है, उसको सामने रखें, ब्रिटिश भारत को क्यों रखें?
बहुराज्यीय राष्ट्र के रूप में भारत एक राष्ट्र रहा है, लेकिन वह काफी पहले की बात है। वह जिस कालखंड की बात है, उस समय अनेक राज्य होते हुए भी उन सभी राज्यों का सामाजिक और सांस्कृतिक अधिष्ठान समान था। इतने विशाल भूखंड पर एक केंद्रीय राज्य का स्थापित होना और वहां से शासन चलाना संभव ही नहीं था। इसलिए उस विशाल भूखंड में छोटे-छोटे राज्य होते हुए भी वहां के राजा या शासक एक ही आदर्श और व्यवस्था के अंतर्गत कार्य करते थे। सभी एक ही राजधर्म का पालन करते थे। सभी की शब्दावलियां समान थीं। इसलिए उस कालखंड से आज की तुलना नहीं की जा सकती। आज बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में भाषा व वेशभूषा आदि अनेक चीजें समान हैं, लेकिन इस्लाम एक विभाजनकारी रेखा है। आज के भारत का संकट यह है कि वह इस्लाम के प्रभाव में है जो एक अलग प्रकार की विचारधारा है। यह भौगोलिक राष्ट्रवाद में विश्वास नहीं करता। भौगोलिक राष्ट्रवाद को स्वीकार न करके वह अपना वर्चस्व चाहता है।
आज के विश्व में विविध प्रकार की प्रवृत्तियां साथ-साथ काम कर रही हैं। सभी अपने-अपने स्वार्थों को लेकर साझा मंच भी तैयार कर रहे हैं और साथ-साथ सब अपने पृथक अस्तित्व को भी सुदृढ़ करने की कोशिश कर रहे हैं। जैसे, भारत में ही बीस दल मिलकर एक गठबंधन तैयार करते हैं। लेकिन गठबंधन बनाने का उनका एकमात्र उद्देश्य गठबंधन के कंधे पर सवार होकर अपने दल की स्थिति मजबूत करना है। इसी प्रकार दक्षेश एक प्रकार से वृहत्तर भारत का ही लघु चित्र है। दक्षेश उसी दिशा में कुछ समान बिंदु खोजने की कोशिश है। हमें विचार करना होगा कि क्या हम अखंड भारत की बात करके ही उस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं या दक्षेश जैसी प्रक्रियाओं के द्वारा भी उस दिशा में बढ़ा जा सकता है। राजनैतिक रूप से अखंड भारत का स्वप्न देखने वालों को तो व्यावहारिक शिक्षा की बहुत आवश्यकता है। वे भावुकता के जगत में जी रहे हैं, उन्हें यथार्थ से परिचित कराने की आवश्यकता है। केवल कुछ शब्दों का बंदी बने रहने से काम नहीं चलेगा। अखंड भारत की बात करते हुए अंदर से टूटते रहने से अच्छा है कि दक्षेश जैसे प्रयोग किए जाएं। यदि इन प्रयोगों से कुछ सफलता मिलती है तो अच्छी बात है, यदि नहीं मिलती है तो हमारा कुछ नहीं बिगड़ता।
This entry was posted on Sunday, July 17th, 2005 and is filed under अखंड भारत, विशेष रिपोर्ट. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
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